नेल हिदायत जब छह वर्ष की थी तब उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि वह अफ़ग़निस्तान छोड़कर लंदन क्यों जा रही हैं, तो उन्हें जवाब मिला कि ‘तुमलोगों के बेहतर भविष्य के लिए.’ लेकिन इस जवाब से नेल संतुष्ट नहीं हुई.
अफ़ग़ानिस्तान में जन्मी नेल हिदायत की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई तो लंदन में हुई. लेकिन उन्हें अपने वतन की याद सताती रही.
पीछे छोड़ आए वतन को नेल अपनी नज़र से देखना चाहती थी. वह सोचती रही कि अगर उसकी परवरिश वहां होती तो उनकी जिंदगी कैसी होती?
आख़िरकार 21 वर्षीय नेल को एक दिन इन सभी सवालों के जावाब जानने का मौक़ा उन्हें मिल ही गया.
नेल हिदायत कहती हैं उत्तरी लंदन में रहते हुए उन्हें परिचय या पहचान की कोई बड़ी समस्या नहीं थी. हिदायत का कहना है कि वो जो करना चाहती थी उसके लिए वो स्वतंत्र रही.
उनका कहना है कि मुजाहिदीन के बढ़ते अत्याचार से तंग आकर उनका परिवार अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर लंदन आ गया, तब वो मात्र छह वर्ष की थी.
लंदन के रास्ते से ही उनकी कहानी शुरू हो गई. वो कहती है, "लंदन की दुनिया बिल्कुल अलग थी, यहां स्कूल, दोस्त, खेलने के लिए होम वीडियो, फोटोग्राफ सब कुछ था. लेकिन अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से मैं जानती थी कि मैं इन सबमें मैं थोड़ा अलग हूं."
हिदायत कहती है, "मैं हमेशा अफ़ग़ान-ब्रिटिश नागरिक की पहली पीढ़ी होने के सच का सामना करती रही. मैं क्या थी, मैंने क्या किया या मेरी पहचान क्या है कुछ भी जानकारी नहीं थी."
मैंने अपनी संस्कृति, अपनी मंजिल और अपना रास्ता खुद बनाना, क्योंकि मेरे पास पहले से कुछ भी नहीं था.
वो कहती है, "मैं अफ़ग़ानी होने की पहचान को ढूढ़ने की कोशिश करने लगी. क्या सही था मैं नहीं जानती थी लेकिन जो सही है वह करने की कोशिश करने लगी. इन सबसे मुझे कभी-कभी बहुत ग़ुस्सा भी आता था और कभी-कभी उलझन में भी फंस जाती थी."
सच का सामना
जब मैं बड़ी हुई तो अपनी पहचान के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हुई.
जहां तक मुझे याद है परिवार, दोस्तो और जानकारों में ये बातचीत होती थी कि कैसे तालेबान के समय औरतों की पिटाई की जाती थी यहां तक की उन्हें मार भी दिया जाता था.
मैं जानती थी कि वहां जीना आसान नहीं था, ख़ास कर महिलाओं के लिए. इसलिए मैं देखना चाहती थी कि अगर मेरे माता-पिता काबुल में रह रहें होते तो मेरी जिंदगी कैसी होती.
वहां जाकर ये सबकुछ जानने के अलावा अपने परिवार से मिलना सबसे महत्वपूर्ण था. मेरी एक चाची है जिनका नाम मर्ज़िया है.
मैंने सुना था कि वह एक बहादुर महिला है. तालेबान के उत्पीड़न के समय में वह अपने परिवार के साथ काबुल में ही रह गई थी.
मैं उनके बारे और भी बहुत कुछ जानना चाहती थी, उनलोगों के संघर्ष की दास्तां और उनकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहती थी.
रूढ़ीवादी समाज के सामने कई महिलाएं घुटने टेक चुकी है.
दर्दनाक अनुभव
अफ़ग़ानिस्तान पहुंचकर मैं एक महिला से मिली जो रूढ़िवादी समाज के सामने घुटने टेक चुकी थी. ये समाज महिलाओं को दूसरे दर्ज़े के नागरिक के रुप में देखता था.
मुझे लगा कि महिलाओं के प्रति यहां का समाज बहुत ज़्यादा हिंसक है, जहां उनके साथ इंसान जैसा नहीं बल्कि जानवरों जैसा वर्ताव किया जाता है.
यहां ऐसी लड़कियों को जेल में डाल दिया गया था जिसके साथ शादी के बाद अत्याचार होता था और वो इससे छुटकारा पाना चाहती थी.
मैं इन महिलाओं के साथ रोने लगी, मैं इनलोगों को समझने की कोशिश कर रही थी.
एक अस्पताल में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं से मिली. मेरे लिए वो मंजर काफ़ी भयावह था.
अफ़ग़ानिस्तान में एक रिवाज के अनुसार दो शत्रु परिवार झगड़े को निपटाने के लिए अपनी बेटियों की अदला-बदली कर लेते हैं. इसी रिवाज की चपेट में आकर एक महिला ने खुद को जला लिया था.
ये सब देख कर मैं तुरंत लंदन लौट जाना चाहती थी, लेकिन इन सबके बीच मैं ऐसी महिला से भी मिली जो बदलाव चाहती थी और इस मिशन पर काम कर रही थी.
वह महिलाओं को जगरूक करती थी और अपने जैसा बनने के लिए प्रोत्साहन देती थी. प्रभावशाली महिलाओं का कोई भी दिन खतरे से खाली नहीं रहता था.
मैं अपनी चचेरी बहन और काबुल विश्वविद्यालय की कुछ महिला अध्यापिकाओं के साथ समय बीताई.
मैं अपनी बहन और दूसरी महिलाओं की ताक़त, दृढ़निश्चय और हार न मानने वाली कोशिश को देख कर विस्मित थी.
मैं दुआ कर रही थी कि इनका और इनकी बेटियों का भविष्य बेहतर हो.
थैंक्स माँ
अब मैं लंदन वापस आ गई हूं और अपने में बदलाव महसूस करती हूं. ये अनूठा अनुभव था. अब मैं अपनी मां की आभारी हूं जिन्होंने मुझे दुखदाई कष्ट से बचा लिया.
मैं अपनी अस्पष्ट पहचान की उलझन में बड़ी हुई, अभी भी मैं थोड़ी उलझन में हूं, लेकिन अब आश्वस्त हूं कि उन महिलाओं कि तरह मैं भी अपने कुछ बेहतर कर पाऊंगी.
अफ़ग़ानिस्तान में जन्मी नेल हिदायत की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई तो लंदन में हुई. लेकिन उन्हें अपने वतन की याद सताती रही.
पीछे छोड़ आए वतन को नेल अपनी नज़र से देखना चाहती थी. वह सोचती रही कि अगर उसकी परवरिश वहां होती तो उनकी जिंदगी कैसी होती?
आख़िरकार 21 वर्षीय नेल को एक दिन इन सभी सवालों के जावाब जानने का मौक़ा उन्हें मिल ही गया.
नेल हिदायत कहती हैं उत्तरी लंदन में रहते हुए उन्हें परिचय या पहचान की कोई बड़ी समस्या नहीं थी. हिदायत का कहना है कि वो जो करना चाहती थी उसके लिए वो स्वतंत्र रही.
उनका कहना है कि मुजाहिदीन के बढ़ते अत्याचार से तंग आकर उनका परिवार अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर लंदन आ गया, तब वो मात्र छह वर्ष की थी.
लंदन के रास्ते से ही उनकी कहानी शुरू हो गई. वो कहती है, "लंदन की दुनिया बिल्कुल अलग थी, यहां स्कूल, दोस्त, खेलने के लिए होम वीडियो, फोटोग्राफ सब कुछ था. लेकिन अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से मैं जानती थी कि मैं इन सबमें मैं थोड़ा अलग हूं."
हिदायत कहती है, "मैं हमेशा अफ़ग़ान-ब्रिटिश नागरिक की पहली पीढ़ी होने के सच का सामना करती रही. मैं क्या थी, मैंने क्या किया या मेरी पहचान क्या है कुछ भी जानकारी नहीं थी."
मैंने अपनी संस्कृति, अपनी मंजिल और अपना रास्ता खुद बनाना, क्योंकि मेरे पास पहले से कुछ भी नहीं था.
वो कहती है, "मैं अफ़ग़ानी होने की पहचान को ढूढ़ने की कोशिश करने लगी. क्या सही था मैं नहीं जानती थी लेकिन जो सही है वह करने की कोशिश करने लगी. इन सबसे मुझे कभी-कभी बहुत ग़ुस्सा भी आता था और कभी-कभी उलझन में भी फंस जाती थी."
सच का सामना
जब मैं बड़ी हुई तो अपनी पहचान के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हुई.
जहां तक मुझे याद है परिवार, दोस्तो और जानकारों में ये बातचीत होती थी कि कैसे तालेबान के समय औरतों की पिटाई की जाती थी यहां तक की उन्हें मार भी दिया जाता था.
मैं जानती थी कि वहां जीना आसान नहीं था, ख़ास कर महिलाओं के लिए. इसलिए मैं देखना चाहती थी कि अगर मेरे माता-पिता काबुल में रह रहें होते तो मेरी जिंदगी कैसी होती.
वहां जाकर ये सबकुछ जानने के अलावा अपने परिवार से मिलना सबसे महत्वपूर्ण था. मेरी एक चाची है जिनका नाम मर्ज़िया है.
मैंने सुना था कि वह एक बहादुर महिला है. तालेबान के उत्पीड़न के समय में वह अपने परिवार के साथ काबुल में ही रह गई थी.
मैं उनके बारे और भी बहुत कुछ जानना चाहती थी, उनलोगों के संघर्ष की दास्तां और उनकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहती थी.
रूढ़ीवादी समाज के सामने कई महिलाएं घुटने टेक चुकी है.
दर्दनाक अनुभव
अफ़ग़ानिस्तान पहुंचकर मैं एक महिला से मिली जो रूढ़िवादी समाज के सामने घुटने टेक चुकी थी. ये समाज महिलाओं को दूसरे दर्ज़े के नागरिक के रुप में देखता था.
मुझे लगा कि महिलाओं के प्रति यहां का समाज बहुत ज़्यादा हिंसक है, जहां उनके साथ इंसान जैसा नहीं बल्कि जानवरों जैसा वर्ताव किया जाता है.
यहां ऐसी लड़कियों को जेल में डाल दिया गया था जिसके साथ शादी के बाद अत्याचार होता था और वो इससे छुटकारा पाना चाहती थी.
मैं इन महिलाओं के साथ रोने लगी, मैं इनलोगों को समझने की कोशिश कर रही थी.
एक अस्पताल में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं से मिली. मेरे लिए वो मंजर काफ़ी भयावह था.
अफ़ग़ानिस्तान में एक रिवाज के अनुसार दो शत्रु परिवार झगड़े को निपटाने के लिए अपनी बेटियों की अदला-बदली कर लेते हैं. इसी रिवाज की चपेट में आकर एक महिला ने खुद को जला लिया था.
ये सब देख कर मैं तुरंत लंदन लौट जाना चाहती थी, लेकिन इन सबके बीच मैं ऐसी महिला से भी मिली जो बदलाव चाहती थी और इस मिशन पर काम कर रही थी.
वह महिलाओं को जगरूक करती थी और अपने जैसा बनने के लिए प्रोत्साहन देती थी. प्रभावशाली महिलाओं का कोई भी दिन खतरे से खाली नहीं रहता था.
मैं अपनी चचेरी बहन और काबुल विश्वविद्यालय की कुछ महिला अध्यापिकाओं के साथ समय बीताई.
मैं अपनी बहन और दूसरी महिलाओं की ताक़त, दृढ़निश्चय और हार न मानने वाली कोशिश को देख कर विस्मित थी.
मैं दुआ कर रही थी कि इनका और इनकी बेटियों का भविष्य बेहतर हो.
थैंक्स माँ
अब मैं लंदन वापस आ गई हूं और अपने में बदलाव महसूस करती हूं. ये अनूठा अनुभव था. अब मैं अपनी मां की आभारी हूं जिन्होंने मुझे दुखदाई कष्ट से बचा लिया.
मैं अपनी अस्पष्ट पहचान की उलझन में बड़ी हुई, अभी भी मैं थोड़ी उलझन में हूं, लेकिन अब आश्वस्त हूं कि उन महिलाओं कि तरह मैं भी अपने कुछ बेहतर कर पाऊंगी.
उम्मीद है कि इसी तरह आपके ब्लॉग पर अलग-अलग विषयों पर पढ़ने को मिलेगा।
जवाब देंहटाएंBahut khoob..aur lekhan ka intezaar rahega!
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