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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

'विवाहेत्तर संबंधों' की वजह से भूकंप !

एक खबर हाल ही में पढ़ी है आप भी पढ़िए, ईरान के एक कट्टरपंथी मौलवी ने दावा किया है कि 'विवाहेत्तर संबंधों' की वजह से भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं।

ब्रिटिश समाचार पत्र 'द टेलीग्राफ' ने कट्टरपंथी मौलवी अयातुल्लाह काजेम सिद्दीकी के हवाले से खबर प्रकाशित की है। मौलवी ने कहा आधुनिक परिधानों में महिलाओं को देखकर युवक गुमराह हो जाते हैं, जिससे कई प्राकृतिक आपदाएं, जैसे भूकंप की संभावना बढ़ जाती है।"कई महिलाएं सलीके से कपड़े नहीं पहनती हैं, ऐसे में युवा गुमराह हो जाते हैं और समाज में विवाहेत्तर संबंधों की घटनाएं बढ़ जाती है। "
इस खबर को पढ़ने के बाद यही लग रहा है कि सारा भूगोल बेकार है। पर्यावरण विज्ञान और धरती-आसमान को एक करने वालों को ये सोचना चाहिए कि अब महिलाओं को कैसे कपड़े पहनाएं और कैसे कैद करके रखें ताकि भूकंप ना आए।
जापान-गुज़रात के लोगों को खास तौर पर सचेत हो जाना चाहिए। विवाहेत्तर संबंध पुरुष बनाता है तो कोई जलज़ला नहीं आता,लेकिन अगर वहीं महिला बनाए तो भूकंप आने की संभावना बढ़ जाती है।
भूकंपरोधी विषय पर काम कर रहे लोगों को बधाई कि इससे आसान उपाय भूकंप रोकने का कोई नहीं हो सकता कि सभी जवान-ज़हीन महिलाओं को मिट्टी में गाड़ तो या बंद कोठरी में कैद कर दो।
समाज की भलाई के लिए सभी महिलाएं सहर्ष तैयार हो जाऐंगी...... 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

आखिर किस सम्मान के लिए "ऑनर किलिंग"


हरियाणा और आसपास के राज्यों की खाप पंचायतों की शीर्ष संस्था ने 'ऑनर किलिंग' (कथित सम्मान के लिए की जाने वाली हत्या) के अपराध में पिछले महीने मौत की सजा पाए छह लोगों को अपना समर्थन देने का फैसला किया है।
खाप महापंचायत ने मंगलवार को हिंदू विवाह कानून में एक संशोधन करके समान गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की भी मांग की। खाप नेताओं ने न्यायालय के निर्णय के विरोध में दिल्ली को उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर एक पर प्रदर्शन करने और चण्डीगढ़ तथा अंबाला में सड़क जाम करने का फैसला किया। असंतुष्ट खाप नेता राज्य सरकार के खिलाफ टकराव की ओर बढ़ रहे हैं।
इस खबर को पढ़ने के बाद एक आस टूट गई। आस थी कि शायद हम ऑनर किलिंग के कलंक से जल्द ही छुटकारा पा लेंगे।
ये आस तब जगी थी कि जब ऑनर किलिंग के नाम पर प्रेमी और विवाहित जोड़ों की क्रूर हत्याओं को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर पहल हुई थी। केंद्र सरकार देश में कथित तौर पर बढ़ते ऑनर किलिंग को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करने की बात की गई। इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव को कानून मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी।
आज आस टूटने की बात इसलिए आ रही है क्योंकि सरकार और समाज ही वो दो सिरे हैं,जो इस सामाजिक-आपराधिक कलंक से निपटने के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार होते हैं।
सरकार अगर कानूनी तौर पर कड़ाई करे तो भी एक हाथ से ताली बजाने वाली बात होगी....क्योंकि सरकार के पास कोई प्रत्यक्ष कानून नहीं है, और समाज आज भी महिला को जाति सूचक शर्म की वस्तु समझने की अंधी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा है। तभी तो जब करनाल की एक अदालत ने पिछले महीने समान गोत्र में विवाह करने वाले मनोज और बबली की हत्या करने का दोषी करार देकर पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई तो राज्य सरकार के खिलाफ बगावती तेवर दिखाने के साथ-साथ हिंदू विवाह कानून में संशोधन करने की भी मांग कर डाली।
ज्यादातर मामलों में हत्या का ये आदेश गांव की जाति पंचायत सुनाती है,जिसे खाप के नाम से जाना जाता है,खाप गांवोंमें चलने वाली समानांतर अदालत होती है,जो खुद को सारे सामाजिक क्रिया-कलापों का ठेकेदार समझती है।
ऑनर किलिंग के इन मामलों का बुनियादी कारण औरत होती है,जिसे समुदाय की मर्यादा से जोड़कर देखा जाता है,इसलिए पुरुष प्रधान समाज में उसे खुद अपने फैसले लेने का अधिकार भी नहीं होता। खाप अपने समुदाय की स्त्रियों पर पहरा रखती है और समाज के लड़के से उसके प्रेम को अपमान मानकर उनकी हत्या के फरमान जारी कर देती है।
इन पंचायतों पर धन और बल वालों का हाथ होता है,इसलिए अक्सर इनका फैसला भी कमज़ोर लोगों के खिलाफ ही होता है,जिसे मानना अनिवार्य होता है। गांव की चुनी हुई पंचायतें इन जाति पंचायतों के सामने गूंगी होती हैं,और प्रशासन अपंग बना रहता है। धर्म, संस्कृति और स्त्रियों के भविष्य निर्धारित करने वाले खाप के स्वयंभू पंच प्रेमी जोड़ों को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने, फांसी चढ़ा देने या जला कर मार देने की सज़ा सुनाते रहे हैं।
सवाल ये है, कि दशकों से जारी इस कलंक पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है ? इसका जवाब शायद उन सामाजिक कुरीतियों की जड़ में छिपा है,जिन्हें धर्म,जाति और समुदायों का अधिकार समझा जाता है,और जिन्हें राजनीतिक कारणों से कुरेदने की हिम्मत सरकारें नहीं कर पातीं। मासूम बेटे-बेटियों को सज़ा-ए-मौत सुनाने वाली इन जाति पंचातयों पर प्रतिबंध लगाने से सरकारें हिचकती रही हैं,और पुलिस इन गैरकानूनी सार्वजनिक अदालतों के फैसलों पर अपनी सीमित परिभाषाओं के तहत परिणामविहीन कार्रवाई करता रहा है। इस साल जुलाई में खुद संसद में ऑनर किलिंग के मुद्दे पर खूब हंगामा हुआ,लेकिन तब नतीज़ा ढ़ाक के तीन पात ही रहा था।
ये खाप महापंचायते कानून और सरकार से ऊपर हैं क्या, आज ये न्यायालय के निर्णय को भी ना मानते हुए लामबंद हो रहे हैं। कहीं ये भोर के उजाले के पहले अंधेरे की छटपटाहट तो नहीं है..।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

एक ही के साथ कैसे गुज़ार सकती हो?

जब मैने देश की राजधानी में पढ़ने के लिए एक संस्थान में दाखिला लिया,तो मुझ जैसी छोटे शहर की लड़की को तमाम तरह की सच्चाई से साबका पड़ा। कुछ तो वाकई फायदेमंद थी लेकिन कुछ के बारे में मै आज भी सोचती रहती हूं और जानने की कोशिश में जुटी रहती हूं कि क्या वाकई ये लड़कियां इतनी एडवांस थी..या फिर यूं ही बाते बनाने के लिए खुद को अपने कपड़ों की तरह ही बिंदास दिखाने के ऐसे स्टेटमेंट दे दिया करती थी। मै आज भी जानना चाहती हूं कि वो लड़किया कहां और कितनों के साथ, किस हाल में हैं? बात करीब दस साल पहले की है जब मेरे जीवन में दो घटनाएं किसी उल्कापात की तरह हुई। एक तरफ मेरी शादी हुई,दूसरी तरफ दिल्ली के एक संस्थान की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया..और मै इंटरव्यू देने के लिए दिल्ली आ गई। इंटरव्यू भी पास कर लिया और दाखिला ले लिया। मेरे लिए दोनों तरफ नया था...एक तरफ पारिवारिक तौर पर मै नई ज़िदगी में कदम रख रही थी..नए संबधों को जानने समझने की कोशिश में उलझी-सुलझी रहती थी(क्योंकि एक लड़की के लिए मायके से विदा होकर ससुराल की ड्योढ़ी पर कदम रखते ही उसकी दुनियां ही बदल जाती हैं...बोलने,समझने,समझाने का मिजाज बदल जाता हैं)
वहीं दूसरी तरफ देश की राजधानी के एक उच्च संस्थान में देश भर से आए छात्र-छात्राओं का साथ। छात्र-छात्राओं का उन्मुक्त व्यवहार..वैसै ही कपड़े...वैसे ही फैशन…पढ़ने की नई विधा...समझने की नई विधा..नए-नए तरह के प्रोफेसर,क्योकि हमारे शहर में साउथ इंडियन प्रोफेसर नहीं हुआ करते हैं। इनका अंदाज..खैर छोड़िए वो सब कभी और बताउंगी.. ।
मै एक तरफ अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी से सामंजस्य बिठा रही थी तो दूसरी तरफ इन सब चीज़ों के साथ ।
मुझे यहां के अधिकतर छात्र-छात्राएं बहुत ध्यान से देखते थे।इसकी वजह आप बिल्कुल ये ना समझें कि मै अपूर्व सुंदरी थी। जो चीज़े मुझे इन छात्र-छात्राओं से अलग करती थी...वो थी मेरी सिंदूर भरी मांग,कलाई में चूड़ियां..क्योंकि हमारे यहां रिवाज़ है कि कम से कम सवा महीने मांग और कलाई भरी होनी चाहिए।
कभी संस्थान के लॉन..तो कभी क्लास..कभी कैंटीन में आते-जाते कईयों से बातचीत होने लगी..नहीं तो स्माइल का ही आदान-प्रदान होने लगा। यहीं मैने सीखा कि टॉयलेट को “लू” कहते हैं...क्योंकि हम तो बॉथरुम और टॉयलेट ही कहते थें...जिस दिन “लू” शब्द का धमाका मेरे सामने हुआ..मै थोड़ी हकबकाई सी रह गई थी लेकिन अपने आपको स्मार्ट दिखाने और सब समझ रहीं हूं दिखाने की कोशिश में मैने.. या ,श्योर जैसे अंग्रेज़ीदा शब्दों से काम चला लिया। लेकिन हॉस्टल के अपने रुम में आते ही भार्गव की मोटी डिक्शनरी में शाब्दिक अर्थ ढ़ूढ़ने लगी..लेकिन वहां भी नहीं मिला...
खैर थोड़े दिनों बाद मै भी “लू” ही जाने लगी। ऐसी तो ना जाने कितनी ही यादें हैं। लेकिन जो बात अभी बतानी है वो है कि करीब बीस दिनों के बाद ही एक विस्फोट हुआ शब्दों का...एक अंग्रेजीदां,फैशनपरस्त,आधुनिक लड़कियों का ग्रुप जिनसे केवल स्माइल एक्सचेंज़ होती थी..उसमें से एक ने कहा हाय,हाउ आर यू? मैने कहा, फाइन...थोड़ी बहुत हॉस्टल और क्लास की बातों के बाद एक ने कहा, यू आर मैरिड...मैने पूछा इसलिए नहीं लिखा कि उसने कहा ही था...पूछा नहीं था..मै भी शादीशुदा होने की पूरे साजो-सामान से सुसज्जित थी..फिर क्यों ऐसा कह रही है..मेरे चेहरे पर थोड़ी झिझक, थोड़ी शर्म..का मिलाजुला पुट आया...इसके बाद तो उसने जो कहा वो मेरे जैसे मध्यमवर्गीय लड़की के लिए किसी विस्फोट जैसा ही था..उसने कहा कैसे पॉसिबल है कि तुम एक ही इंसान के साथ अपनी पूरी ज़िंदगी बिता दोगी?
मुझे तो जवाब देते ही नहीं बना..मै बस मुस्कुराह चेहरे पर चिपकाए...वहां से चली गई। लेकिन मुझे लगा कि ये लड़कियां कैसी बाते करती हैं? क्या सोच है इनकी ? मैने रात को पीसीओ बूथ पर जाकर लाइन में लगकर अपनी मम्मी को फोन किया(क्योंकि तब मोबाइल क्रांति नहीं आई थी,आधे-आधे घंटे बूथ पर तपस्या करनी पड़ती थी)मम्मी को कई बातों के साथ ये बात भी बतायी। मेरी मां ने चेतावनी और घबराए भरे लहज़े में कहा कि “देखो ऐसी लड़कियों से दूर रहना,दोस्ती ना करना..आज दस साल बीत जाने के बाद सोचती हूं कि कहां हैं वो लड़कियां ?