बदलते दौर में महिलाओं को सामाजिक बराबरी का दर्जा देने के दावे भले ही किए जाएं,लेकिन सच ये है कि हमारा समाज आज भी महिला को उपभोग की वस्तु ही समझता है।लिंगभेद मिटाने के नारों के बावज़ूद,चाहे-अनचाहे,यहां तक कि आज़ादी के नाम पर भी महिलाओं का शोषण ज़ारी है।तो फिर सवाल ये है कि महिला सशक्तिकरण के आंदोलन का अर्थ क्या है ? क्या इस नारे के बाद पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता में परिवर्तन आया है? क्या सामाजिक वर्चस्व और महिला को अपनी जायदाद समझने की उसकी संकीर्ण सोच व्यापक हुई है? सबसे बड़ी बात कि क्या खुद महिलाएं सशक्त हुई हैं और पुरुषों के अधीन रहने की उनकी इच्छा और उनके साथ ही सती हो जाने की उनकी कल्पना में कोई बदलाव आया है? आधी दुनियां के सबसे बड़े सवाल का जवाब भी आधा है.सच ये है कि पुरुष अपनी मानसिकता बदलने शायद अब भी तैयार नहीं है और उसे महिला सशक्तिकरण का नारा भी नहीं भा रहा है लेकिन महिलाओं की सोच बदली है और वो मानसिक रुप से सशक्त हुई है।
सबसे पहले बात आर्थिक मोर्चे की..क्योंकि यही वो मोर्चा है जिसने सदियों से महिलाओं को कमज़ोर और गुलाम बनाकर रखा है और पुरुषों के अधीन रहने को मज़बूर किया है,दूसरी तरफ आज की आर्थिक आज़ादी ने महिलाओं को घर से बाहर निकलने के मौके दिए हैं,जिसने कमाने और खर्च करने के पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा है ।ये आर्थिक आज़ादी का ही नतीज़ा है कि महिलाओं ने बाज़ार के समीकरण बदल दिए हैं।कमाऊ महिला के पास पैसा है,खरीदने की आज़ादी है और पसंद का विकल्प,बाज़ार मौज़ूद है।यानी आज महिला इतनी सशक्त हो गई है कि उसके पास बाज़ार को दिशा देने की क्षमता आ गई है। बाज़ार को महिलाओं की मौज़ूदगी ने एक नहीं बल्कि कई आयाम दिए हैं..मसलन टीवी पर एक विज्ञापन देखा था..वर्जिन कंपनी के मोबाइल का ये विज्ञापन कुछ इस तरह है “किसी कंपनी में काम करने वाली एक महिला अपने बॉस के पास जाती है और अपने प्रमोशन के बारे में पूछती है,बॉस कहता है,तुम तो शादी करने जा रही हो..क्या करोगी प्रमोशन लेकर..जवाब में लड़की मोबाइल लेकर उसके नज़दीक जाती है..और एक वीडियो फुटेज दिखाते हुए सीधा सवाल करती है कि प्रमोशन दे रहे हो या ये फुटेज घर भेज दूं? विज्ञापन में महिला की बोल्डनेस और अपने अधिकारों के लिए लड़ाई का पैग़ाम तो है ही,लेकिन उसके सामने खड़ी चुनौतियां भी ज़ाहिर होती है,यानी शादी के बाद महिला इस काबिल नहीं रह जाती कि उसे प्रमोशन के लायक समझा जाए।
आस-पास नज़र उठाकर देखें तो एक शादीशुदा कामकाजी महिला दो-दो मोर्चे पर हर दिन जंग लड़ रही है यानी आर्थिक मोर्चा और दूसरा घर-गृहस्थी का मोर्चा...घर, परिवार, बच्चे .. सब कुछ परफेक्ट बनाने की चाह में महिला हर क्षण खुद को दांव पर लगा रही है और हर पल एक साथ कई जीवन जी रही है लेकिन शायद पुरुष ये सब कुछ जानते समझते हुए भी समझना नहीं चाहते..क्योंकि सदियों से चली आ रही ऊंची मूंछ आड़े आ जाती है।ऐसा नहीं है कि दफ्तर में काम करने वाले पुरुष की बीवी,बहन या मां इस दोहरी भूमिका में नहीं होती..होती है,लेकिन बावज़ूद इसके ,एक महिला को उसका अधिकार और सम्मान देते वक्त वर्जिन मोबाइल की मानसिकता हावी हो जाती है और इस मानसिकता पर सवाल खड़ा करने की चाह प्राय: किसी पुरुष में नहीं झलकती और वो महिला स्वतंत्रता के नाम पर विरोध ना भी करे,तो चुप्पी ज़रूर साध लेता है..यानी,इस मौन को तोड़ने की ज़िम्मेदारी पुरुषों के सहयोग के बिना खुद महिलाओं को ही उठानी है..वरना बदलते दौर में,एक दिन ये मौन इस आधे समाज पर भारी पड़ेगा...और शायद तब, बस्ती तो होगी,पर सन्नाटे से भरी हुई।
सोमवार, 8 मार्च 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
जबरदस्त लिखा है आपने ...सही कहा औरत अब खुद कमाने लगी है तो कई मर्चे पर फ़तेह हाशिल इसी बात से हो गयी है
जवाब देंहटाएं