उड़ान पर आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है..ज़िंदगी का जंग जीतना है तो हौसला कायम रखिए..विश्वास करें सफलता आपके कदम चूमेगी..

मंगलवार, 30 मार्च 2010

बधाई हो ! नन्ही जान

तमाम नियम कानूनों के बावज़ूद बेटी को कोख में ही कत्ल करने के मामले बढ़ते जा रहे हैं।ऐसे में अब एक पहल मस्जिदों से शुरु हो रही है।देशभर के इमाम अपनी तकरीरों में इस गुनाह का इस्लामी नज़रिया रखेंगे।हाल ही में लखनऊ में संपन्न हुई ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के राष्ट्रीय अधिवेशन में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने का फैसला हुआ है।कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ यह पहल इसी फैसले की एक अहम कड़ी है।मुस्लिम बुद्धजीवी वर्ग मानता है कि इस पहल का दूरगामी और सकारात्मक असर पड़ेगा।मुस्लिम समुदाय को कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता पैदा करने और इसे खत्म करने का यह तरीका सबसे आसान और प्रभावी दिखता है।क्योंकि जो बात मस्जिद से कही जाएगी उसे हर तबके के लोग मानेंगे। कहते हैं कि कभी कभी तकनीकी भी जानलेवा साबित होती है,कुछ ऐसा ही इस मामले में भी हुआ है।जानकारी के मुताबिक भारत वर्ष में लगभग दो दशक पूर्व भ्रूण-परीक्षण पद्धति की शुरुआत हुई, जिसका नाम है-एमिनो सिंथेसिस। इसका उद्देश्य है गर्भस्थ शिशु के क्रोमोसोमों के संबंध में जानकारी हासिल करना। यदि भ्रूण में किसी भी तरह की विकृति हो, जिससे शिशु की मानसिक और शारीरिक स्थिति बिगड़ सकती हो, तो उसका उपचार करना। किन्तु पिछले दस वर्षों से यह उद्देश्य बिल्कुल बदल गया है। आज अधिकांश माता-पिता गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की चिंता छोड़कर भ्रूण-परीक्षण केन्द्रों में यह पता लगाने जाते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है अथवा लड़की। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती है, किन्तु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनायी जाती है।
नारी को पूजने की बात करने वाले हमारे देश में लड़कियों को हेय की दृष्टि से देखा जाता है। आज पढ़े-लिखे ,जागरुक समाज में हालत ये है कि
पहली संतान बेटी हो गई तो दुबारा गर्भ धारण करने पर उसे अल्ट्रासाउंड करवाने की सलाह दी जाती है और कई माता-पिता खुद ही परीक्षण करवाने जाते हैं और एक नन्ही जान को दुनियां में आने से रोक देते हैं।इसके लिए तमाम तरह की दलीले भी दी जाती हैं।
अमेरिका में सन् 1994 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12 सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
क्या इस सत्य को जानने समझने और देखने के बाद भी किसी मां का दिल भ्रूण हत्या के लिए तैयार होगा।कई बार तो मां के ना चाहने के बावजूद भी घरों के बड़ों और पति के दबाव में भ्रूण हत्या करवाने को विवश होती है। दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे सोनोग्राफी सेंटर से कन्या भ्रूण-हत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रूण-हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जन-गणना में कन्याओं की घटती हुई संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इस बात से देश के प्रबुद्ध समाज शास्त्री चिंतित हैं। उनका मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जायेगी, जिससे विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियाँ नहीं रहेंगी। अपेक्षा है कि सामाजिक सोच बदली जाए, मानदंड बदले जाए। लड़के और लड़कियों के बीच भेद-रेखा को समाप्त किया जाये। एक कहावत है- लड़का करेगा कुल को रौशन, लड़की है पराया धन। इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं के विकसित होने के परिणाम स्वरूप ही कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी हैं। आज की परिस्थिति में लड़का हो या लड़की, इस बात का महत्व नहीं रहा है। बच्चा चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे शिक्षा व संस्कारों से संस्कारित किया जाना चाहिए। लड़कियों के जन्म से घबराने की अपेक्षा उनके जीवन के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, यह समाज के लिए अधिक श्रेयस्कर है।
कौम कोई भी हो हिंदू या मुस्लिम,सामाजिक बुराईयों से निजात दिलाने में धार्मिक नजरिया रामबाण होते हैं। ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के राष्ट्रीय अधिवेशन में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के फैसले का तहे दिल से स्वागत और इस दिशा में सोचने का शुक्रिया ना जाने कितनी अजन्मी नन्ही जानें कर रही है।


गुरुवार, 25 मार्च 2010

जागो और बहस में हिस्सा लो


एक वरिष्ठ और राष्ट्रीय स्तर के नेता ने मौजूदा स्वरूप में महिला आरक्षण विधेयक के प्रति अपना विरोध दोहराते हुए लखनऊ में एक कार्यक्रम में कहा था कि यदि विधेयक इस रूप में पारित हो जाता है तो इससे आम महिलाएं नहीं बल्कि उद्योगपतियों और अधिकारियों के घरों में महिलाएं और लडकियां ही लोकसभा और विधानसभाओं से चुन कर जाएंगी। उन्होंने यहां तक कह डाला, मैं यह कहना तो नहीं चाहता, मगर ये महिलाएं वहीं होगी जिन्हें देखकर लड़के सीटियां बजाएंगे।
इस बयान से प्रबुद्ध सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए समाजवादी पार्टी के नेता का बयान तो आज की तुच्छ राजनीति की चरम सीमा पार कर जाता है।लेकिन इस कथन पर सफाई तो बर्दाश्त के काबिल ही नहीं है।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने महिलाओं पर सीटी बजाने के अपने बयान पर दलील देते हुए कहा कि उन्होंने यह बयान जानबूझकर दिया था।मुलायम ने कहा कि इन शब्दों को इस्तेमाल करने का मकसद यह था कि इससे लोगों का माथा ठनके और महिला आरक्षण बिल पर चर्चा हो।
क्या हो गया है आज के राजनेताओं को,किस स्तर की राजनीति की जा रही है, एक वरिष्ठ समाजवादी नेता से इस तरह के बयान की उम्मीद की जा सकती है क्या,क्या इससे पहले महिला आरक्षण बिल पर चर्चा नहीं हो रही थी।ऐसा सभी लोग सोच और कह सकते हैं।
लेकिन बिल्कुल सही कहा है मुलायम जी आपने ,आपके बयान से तो माथा ठनक ही रहा था,रही सही कसर बयान पर दलील ने पूरी कर दी।
अगर आज लोहिया होते तो अपने इस काबिल सपूत की काबिलियत पर गर्व से सिर ऊंचा कर रहे होते।आखिर इस सोए समाज को जगाने के लिए उसने अपनी पूरी राजनीति न्यौछावर कर दी।ये भी नहीं सोचा कि इस बयान के बाद समाज में उनकी क्या छवि रह जाएगी।
समाजवादी नेता महिला आरक्षण बिल के मुद्दे पर हर तबके की महिला को बहस के लिए जगाना चाहते हैं।आज महिलाएं इस कदर सो रही हैं कि उनके कानों में जबतक गर्म तेल नहीं डाला जाएगा तब तक ये यूं ही सोती रहेंगी।इस बयान और दलील से ज्यादा गर्म तेल क्या होगा? अगर इस देश की महिलाएं अभी भी नहीं जागी तो मुलायम सिंह यादव जी का बलिदान बेकार हो जाएगा।कृपया सभी महिला बुद्दिजावियों से विनम्र आग्रह है कि इस बयान और दलील के शब्दों पर ना जाएं बल्कि शब्दों के पीछे की मंशा को समझने की कोशिश करें। अब आधी आबादी को इस सन्नाटे को तोड़ना ही पड़ेगा नहीं तो कल कोई और वरिष्ठ नेता इससे भी ज्यादा गर्म तेल आपके कानों में डालेगा और आप सुनने के लिए मज़बूर होंगी।
प्रतिभा राय

थैंक्स माँ !


नेल हिदायत जब छह वर्ष की थी तब उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि वह अफ़ग़निस्तान छोड़कर लंदन क्यों जा रही हैं, तो उन्हें जवाब मिला कि ‘तुमलोगों के बेहतर भविष्य के लिए.’ लेकिन इस जवाब से नेल संतुष्ट नहीं हुई.
अफ़ग़ानिस्तान में जन्मी नेल हिदायत की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई तो लंदन में हुई. लेकिन उन्हें अपने वतन की याद सताती रही.
पीछे छोड़ आए वतन को नेल अपनी नज़र से देखना चाहती थी. वह सोचती रही कि अगर उसकी परवरिश वहां होती तो उनकी जिंदगी कैसी होती?
आख़िरकार 21 वर्षीय नेल को एक दिन इन सभी सवालों के जावाब जानने का मौक़ा उन्हें मिल ही गया.
नेल हिदायत कहती हैं उत्तरी लंदन में रहते हुए उन्हें परिचय या पहचान की कोई बड़ी समस्या नहीं थी. हिदायत का कहना है कि वो जो करना चाहती थी उसके लिए वो स्वतंत्र रही.
उनका कहना है कि मुजाहिदीन के बढ़ते अत्याचार से तंग आकर उनका परिवार अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर लंदन आ गया, तब वो मात्र छह वर्ष की थी.
लंदन के रास्ते से ही उनकी कहानी शुरू हो गई. वो कहती है, "लंदन की दुनिया बिल्कुल अलग थी, यहां स्कूल, दोस्त, खेलने के लिए होम वीडियो, फोटोग्राफ सब कुछ था. लेकिन अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से मैं जानती थी कि मैं इन सबमें मैं थोड़ा अलग हूं."
हिदायत कहती है, "मैं हमेशा अफ़ग़ान-ब्रिटिश नागरिक की पहली पीढ़ी होने के सच का सामना करती रही. मैं क्या थी, मैंने क्या किया या मेरी पहचान क्या है कुछ भी जानकारी नहीं थी."
मैंने अपनी संस्कृति, अपनी मंजिल और अपना रास्ता खुद बनाना, क्योंकि मेरे पास पहले से कुछ भी नहीं था.
वो कहती है, "मैं अफ़ग़ानी होने की पहचान को ढूढ़ने की कोशिश करने लगी. क्या सही था मैं नहीं जानती थी लेकिन जो सही है वह करने की कोशिश करने लगी. इन सबसे मुझे कभी-कभी बहुत ग़ुस्सा भी आता था और कभी-कभी उलझन में भी फंस जाती थी."
सच का सामना
जब मैं बड़ी हुई तो अपनी पहचान के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हुई.
जहां तक मुझे याद है परिवार, दोस्तो और जानकारों में ये बातचीत होती थी कि कैसे तालेबान के समय औरतों की पिटाई की जाती थी यहां तक की उन्हें मार भी दिया जाता था.
मैं जानती थी कि वहां जीना आसान नहीं था, ख़ास कर महिलाओं के लिए. इसलिए मैं देखना चाहती थी कि अगर मेरे माता-पिता काबुल में रह रहें होते तो मेरी जिंदगी कैसी होती.
वहां जाकर ये सबकुछ जानने के अलावा अपने परिवार से मिलना सबसे महत्वपूर्ण था. मेरी एक चाची है जिनका नाम मर्ज़िया है.
मैंने सुना था कि वह एक बहादुर महिला है. तालेबान के उत्पीड़न के समय में वह अपने परिवार के साथ काबुल में ही रह गई थी.
मैं उनके बारे और भी बहुत कुछ जानना चाहती थी, उनलोगों के संघर्ष की दास्तां और उनकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहती थी.
रूढ़ीवादी समाज के सामने कई महिलाएं घुटने टेक चुकी है.
दर्दनाक अनुभव
अफ़ग़ानिस्तान पहुंचकर मैं एक महिला से मिली जो रूढ़िवादी समाज के सामने घुटने टेक चुकी थी. ये समाज महिलाओं को दूसरे दर्ज़े के नागरिक के रुप में देखता था.
मुझे लगा कि महिलाओं के प्रति यहां का समाज बहुत ज़्यादा हिंसक है, जहां उनके साथ इंसान जैसा नहीं बल्कि जानवरों जैसा वर्ताव किया जाता है.
यहां ऐसी लड़कियों को जेल में डाल दिया गया था जिसके साथ शादी के बाद अत्याचार होता था और वो इससे छुटकारा पाना चाहती थी.
मैं इन महिलाओं के साथ रोने लगी, मैं इनलोगों को समझने की कोशिश कर रही थी.
एक अस्पताल में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं से मिली. मेरे लिए वो मंजर काफ़ी भयावह था.
अफ़ग़ानिस्तान में एक रिवाज के अनुसार दो शत्रु परिवार झगड़े को निपटाने के लिए अपनी बेटियों की अदला-बदली कर लेते हैं. इसी रिवाज की चपेट में आकर एक महिला ने खुद को जला लिया था.
ये सब देख कर मैं तुरंत लंदन लौट जाना चाहती थी, लेकिन इन सबके बीच मैं ऐसी महिला से भी मिली जो बदलाव चाहती थी और इस मिशन पर काम कर रही थी.
वह महिलाओं को जगरूक करती थी और अपने जैसा बनने के लिए प्रोत्साहन देती थी. प्रभावशाली महिलाओं का कोई भी दिन खतरे से खाली नहीं रहता था.
मैं अपनी चचेरी बहन और काबुल विश्वविद्यालय की कुछ महिला अध्यापिकाओं के साथ समय बीताई.
मैं अपनी बहन और दूसरी महिलाओं की ताक़त, दृढ़निश्चय और हार न मानने वाली कोशिश को देख कर विस्मित थी.
मैं दुआ कर रही थी कि इनका और इनकी बेटियों का भविष्य बेहतर हो.
थैंक्स माँ
अब मैं लंदन वापस आ गई हूं और अपने में बदलाव महसूस करती हूं. ये अनूठा अनुभव था. अब मैं अपनी मां की आभारी हूं जिन्होंने मुझे दुखदाई कष्ट से बचा लिया.
मैं अपनी अस्पष्ट पहचान की उलझन में बड़ी हुई, अभी भी मैं थोड़ी उलझन में हूं, लेकिन अब आश्वस्त हूं कि उन महिलाओं कि तरह मैं भी अपने कुछ बेहतर कर पाऊंगी.

रविवार, 21 मार्च 2010

मुस्लिम महिलाओं को बधाई !

ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के चुनाव में महिलाओं की भागीदारी पांच से बढ़ाकर लगभग 12 प्रतिशत कर दी गयी।चलो कहीं तो कुछ भागीदारी का प्रतिशत बढ़ा।महिलाओं की इस भागीदारी पर थोड़े देर के लिए खुश होकर उसे यूं ही ना छोड़ दे।बल्कि अपने हक और बेहतरी की दिशा में प्रयास जारी रखें।..इसी मुबाकरबाद के साथ अब खबर की तरह पढ़ लें...हालांकि यह समझा जा रहा था कि महिलाओं की भागीदारी तीस प्रतिशत तक बढ़ेगी। बोर्ड का आज जो चुनाव हुआ उसमें बोर्ड कार्यकारिणी में पांच महिलाएं और शामिल की गयीं। इनमें बेगम नसीम इक्तेदार अली, डा. रूखसाना लारी, डा. सफिया नसीम (सभी लखनऊ), डा. अस्मा जहरा और नूरजहां शकील(कोलकाता) हैं। बोर्ड में अब कुल तीस महिला सदस्य हो गयीं हैं। इस तरह अब उनका प्रतिनिधितत्व पांच से बढ़कर लगभग 12 प्रतिशत हो गया है। मुस्लिम महिलाओं को बोर्ड में अपना प्रतिनिधित्व 30 प्रतिशत हो जाने की आस बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना (डा.) कल्बे सादिक के इस आश्वासन से बंधी थी कि बोर्ड में महिलाओं के 30 प्रतिशत प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव बोर्ड के इस अधिवेशन में रखा जाएगा। मौलाना सादिक ने मुस्लिम महिलाओं को यह भरोसा अक्टूबर-09 में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन के एक सम्मेलन में दिया था लेकिन उस समय ही बोर्ड के अन्य सदस्य मौलाना कल्बे सादिक के इस बयान से नाराज दिखायी देने लगे थे। बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली और जफरयाब जीलानी ने मौलाना सादिक के इस बयान का खुला विरोध करते हुए उसी समय कहा था कि बोर्ड के किसी फैसले के पहले ऐसा कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया जाना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा था कि बोर्ड में महिलाओं की संख्या पर्याप्त है।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

पंख कतरने की कोशिश

-क्या वास्तव में पंख कतरने की कोशिश की जा रही है?
-पंख कतर देने से उड़ान रुक जाएगी?
-किसी को उड़ान भरने के लिए किस चीज़ की ज़रुरत होती है?[सिवाय पंक्षियो के]
कृपया पाठक जवाब दें!
एक सार्थक बहस शुरु करने की कोशिश....

शनिवार, 13 मार्च 2010

जल्द मिलिए एक महिला जनरल से


दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश से सेना के अधिकारियों को सदियों पुराने पूर्वाग्रहों से निकलने का एक मौका मिला है। आदेश स्पष्ट है कि जब एक काम करने वाले पुरुषों को पांच साल या दस साल की सेवा के बाद स्थाई कर दिया जाता है तो वही काम करने वाली महिलाओं को भी स्थाई किया जाए। इससे अभी तक महिला अधिकारी जो सेवा निवृत्ति से पहले अधिक से अधिक लेफ्टिनेंट कर्नल बन पाती थीं, अब वे लेफ्टिनेंट जनरल और जनरल जैसे शीर्ष पदों पर भी काम कर पाएंगी।

हालांकि यह आदेश अभी केवल वायुसेना के लिए है लेकिन चूंकि थलसेना और नौसेना की महिला अफसरों के मामले भी अदालत में हैं, बराबरी के आदेश उन्हें भी मिल जाएंगे। आदेश इस बारे में मौन है कि क्या महिलाओं को लड़ाई के मोर्चे पर तैनात किया जाए या पुरुष सहकमिर्यो की तरह लड़ाकू हवाई जहाज भी चलाने का अवसर दिया जाए। माना जाना चाहिए कि यह आदेश राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल के पारित होने की तरह एक शुरुआत भर है।

आंकड़े बताते हैं देश-विदेश की यह हकीकत
महिला : 252 x 3.45 फीसदी
इन क्षेत्रों में कर सकती हैं काम
सेना : इंजीनियरिंग सेवाएं, सेना शिक्षा कोर, आयुध कोर, सेवा कोर, जज एडवोकेट जनरल तथा खुफिया शाखा।
नौसेना : पनडुब्बी व गोताखोरी को छोड़कर सभी शाखाएं।
वायुसेना : परिवहन विमान व हेलीकॉप्टरों में पायलट, तकनीकी व प्रशासकीय शाखाएं। फिलहाल सिर्फ 7 फीसदी महिलाएं।
कोस्ट गार्ड : सभी शाखाएं।
अभी सिर्फ 11 फीसदी
सेना में 35,377अधिकारी
महिला 4,101 x 11.59 फीसदी
(मेडिकल व नर्सिग सेवा सहित)
वायुसेना में 10,736 अधिकारी
महिला 784 x 7.30 फीसदी
नौसेना में 7297 अधिकारी
पहली नियुक्ति
सैन्य नर्सिग सेवा : 1927 x डॉक्टर कैडर : 1943 x अन्य शाखाओं में : 1992
अमेरिकी सेना में 20 फीसदी
दो लाख महिला सैनिक एक्टिव ड्यूटी में। कुल सैनिकों का 20 फीसदी। इराक अभियान में सहायक सेवाओं में बड़ी संख्या में। स्वेच्छा के आधार पर लड़ाकू भूमिका में जाने की इजाजत।
ब्रिटेन में 9.1 फीसदी
1990 के दशक में महिलाओं की भूमिका का दायरा बढ़ाया गया। आज सेना में 67 फीसदी, नौसेना में 71 फीसदी और वायुसेना में 96 फीसदी कामों में महिलाओं को इजाजत। कुल सैनिकों का 9.1 फीसदी।
अन्य देश
इजरायल में पुरुषों व महिलाओं के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य है। आमतौर पर महिलाओं को रणभूमि से दूर ही रखा जाता है। ऑस्ट्रेलिया में भी वे मैदानी ड्यूटी नहीं कर सकतीं। रूस में महिलाओं को नर्सिग, कम्युनिकेशन जैसी सहायक सेवाओं तक सीमित रखा जाता है।
इनका कहना है..
शारीरिक कमजोरी के बहाने महिलाओं को बराबरी के दर्जे से वंचित करने वाले उसी मानसिकता के प्रतीक हैं जो उन्हें लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण मिलने का विरोध कर रही है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

महिलाओं के लिए नई लक्ष्मण रेखा

अयोध्या के संतों ने महिलाओं के लिए नई लक्ष्मण रेखा खींची है।संतों ने महिलाओं को मंदिरों और मठों में अकेली ना जाने की सलाह दी है।मठाधीशों ने महिलाओं को सलाह दी है कि वो अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ ही मंदिरों और मठों में जाएं।साधु-संतों के सेक्स स्कैंडल में लिप्त पाए जाने की घटनाओं के बाद अयोध्या के संतों का ये बयान काफी अहम माना जा रहा है।

सियासत महिलाओं का काम नहीं:कल्बे जब्बाद

महिला अरक्षण को लेकर देश भर के कई तबकों में बहस चल रही है।मुस्लिम धर्म गुरु मौलाना कल्बे जब्बाद ने इस बहस को एक नया मोड़ दे दिया है।मौलाना कल्बे जब्बाद का कहना है कि सियासत महिलाओं का काम नहीं है उनका काम है आने वाली नस्लों को पैदा करना और उन्हें अच्छी तालीम देना।

सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस:महिलाओं के हाथ में उड़ान की कमान

महिला दिवस के मौके पर एयर इंडिया की एक खास उड़ान मुंबई से न्यूयार्क रवाना हुई। इस उड़ान की कमान चार महिला पायलटों ने संभाल रखी है।
करीब 17 घंटे की इस नॉन स्टॉप उड़ान में इनके बाकी साथी क्रू मेंबर भी महिलाएं हैं।
एयर इंडिया ने महिला दिवस के मौके पर यह अनोखा प्रयोग पहली बार किया है। इस उड़ान के दौरान यह महिला पायलट करीब 10 टाइम जोन से गुजरेंगी। इस उड़ान की कमान सुनीता नरूला और कैप्टन रश्मि मिरांडा के हाथ में है, जबकि कैप्टन स्वाति रावल और कैप्टन नेहा कुलकर्णी इस उड़ान की फर्स्ट ऑफिसर हैं।
इस मौके पर उन महिला पायलटों ने कहा कि ऐसा सम्मान हासिल कर वह खुद को भाग्यशाली महसूस कर रही हैं।

आधी आबादी की चुनौती

बदलते दौर में महिलाओं को सामाजिक बराबरी का दर्जा देने के दावे भले ही किए जाएं,लेकिन सच ये है कि हमारा समाज आज भी महिला को उपभोग की वस्तु ही समझता है।लिंगभेद मिटाने के नारों के बावज़ूद,चाहे-अनचाहे,यहां तक कि आज़ादी के नाम पर भी महिलाओं का शोषण ज़ारी है।तो फिर सवाल ये है कि महिला सशक्तिकरण के आंदोलन का अर्थ क्या है ? क्या इस नारे के बाद पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता में परिवर्तन आया है? क्या सामाजिक वर्चस्व और महिला को अपनी जायदाद समझने की उसकी संकीर्ण सोच व्यापक हुई है? सबसे बड़ी बात कि क्या खुद महिलाएं सशक्त हुई हैं और पुरुषों के अधीन रहने की उनकी इच्छा और उनके साथ ही सती हो जाने की उनकी कल्पना में कोई बदलाव आया है? आधी दुनियां के सबसे बड़े सवाल का जवाब भी आधा है.सच ये है कि पुरुष अपनी मानसिकता बदलने शायद अब भी तैयार नहीं है और उसे महिला सशक्तिकरण का नारा भी नहीं भा रहा है लेकिन महिलाओं की सोच बदली है और वो मानसिक रुप से सशक्त हुई है।
सबसे पहले बात आर्थिक मोर्चे की..क्योंकि यही वो मोर्चा है जिसने सदियों से महिलाओं को कमज़ोर और गुलाम बनाकर रखा है और पुरुषों के अधीन रहने को मज़बूर किया है,दूसरी तरफ आज की आर्थिक आज़ादी ने महिलाओं को घर से बाहर निकलने के मौके दिए हैं,जिसने कमाने और खर्च करने के पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा है ।ये आर्थिक आज़ादी का ही नतीज़ा है कि महिलाओं ने बाज़ार के समीकरण बदल दिए हैं।कमाऊ महिला के पास पैसा है,खरीदने की आज़ादी है और पसंद का विकल्प,बाज़ार मौज़ूद है।यानी आज महिला इतनी सशक्त हो गई है कि उसके पास बाज़ार को दिशा देने की क्षमता आ गई है। बाज़ार को महिलाओं की मौज़ूदगी ने एक नहीं बल्कि कई आयाम दिए हैं..मसलन टीवी पर एक विज्ञापन देखा था..वर्जिन कंपनी के मोबाइल का ये विज्ञापन कुछ इस तरह है “किसी कंपनी में काम करने वाली एक महिला अपने बॉस के पास जाती है और अपने प्रमोशन के बारे में पूछती है,बॉस कहता है,तुम तो शादी करने जा रही हो..क्या करोगी प्रमोशन लेकर..जवाब में लड़की मोबाइल लेकर उसके नज़दीक जाती है..और एक वीडियो फुटेज दिखाते हुए सीधा सवाल करती है कि प्रमोशन दे रहे हो या ये फुटेज घर भेज दूं? विज्ञापन में महिला की बोल्डनेस और अपने अधिकारों के लिए लड़ाई का पैग़ाम तो है ही,लेकिन उसके सामने खड़ी चुनौतियां भी ज़ाहिर होती है,यानी शादी के बाद महिला इस काबिल नहीं रह जाती कि उसे प्रमोशन के लायक समझा जाए।
आस-पास नज़र उठाकर देखें तो एक शादीशुदा कामकाजी महिला दो-दो मोर्चे पर हर दिन जंग लड़ रही है यानी आर्थिक मोर्चा और दूसरा घर-गृहस्थी का मोर्चा...घर, परिवार, बच्चे .. सब कुछ परफेक्ट बनाने की चाह में महिला हर क्षण खुद को दांव पर लगा रही है और हर पल एक साथ कई जीवन जी रही है लेकिन शायद पुरुष ये सब कुछ जानते समझते हुए भी समझना नहीं चाहते..क्योंकि सदियों से चली आ रही ऊंची मूंछ आड़े आ जाती है।ऐसा नहीं है कि दफ्तर में काम करने वाले पुरुष की बीवी,बहन या मां इस दोहरी भूमिका में नहीं होती..होती है,लेकिन बावज़ूद इसके ,एक महिला को उसका अधिकार और सम्मान देते वक्त वर्जिन मोबाइल की मानसिकता हावी हो जाती है और इस मानसिकता पर सवाल खड़ा करने की चाह प्राय: किसी पुरुष में नहीं झलकती और वो महिला स्वतंत्रता के नाम पर विरोध ना भी करे,तो चुप्पी ज़रूर साध लेता है..यानी,इस मौन को तोड़ने की ज़िम्मेदारी पुरुषों के सहयोग के बिना खुद महिलाओं को ही उठानी है..वरना बदलते दौर में,एक दिन ये मौन इस आधे समाज पर भारी पड़ेगा...और शायद तब, बस्ती तो होगी,पर सन्नाटे से भरी हुई।

रविवार, 7 मार्च 2010

साहस और सामर्थ्य ही बैठाएगा फलक पर

जहां एक तरफ पूरे देश भर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर महिलाओं के सम्मान और उत्थान के लिए तमाम कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे वहीं मध्यप्रदेश में छतरपुर के हमां गांव में एक महिला को आग के हवाले कर दिया गया। संध्या नामक इस महिला की ग़लती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपनी अस्मत बचाने के लिए घर में घुस आए चार बदमाशों का मुकाबला किया..नाराज़ बदमाशों ने उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दिया,आखिरकार ज़िंदगी-मौत के बीच जूझते हुए उसने दम तोड़ दिया। ऐसा नहीं है कि ये अकेली घटना है....तमाम घटनाओं से हम अक्सर रुबरु होते रहते हैं और प्रशासन को कोस कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।इस पूरे वाकये में सबसे बड़ी बात ये है कि गांव में ऐसी घटना होती है और उस महिला को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आता। शहर की बड़ी पॉश कॉलोनियों में आस-पास के लोगों को एक दूसरे की खबर नहीं होती ये तो समझ में आता है,क्योंकि विकास की सीढ़ी चढ़ते तथाकथित संभ्रांत लोग मिलने-जुलने में विश्वास नहीं करते।लेकिन गांव..जहां चूल्हे भी एक दूसरे की आग से जलती थी..वहां सरेआम ऐसी घटनाए हो जाती हैं और लोग मदद को आगे नहीं आते।
आज अगर महिलाओं को किसी चीज़ की ज़रुरत है तो उसे सामर्थ्यवान बनाए,साहसी बनाए क्योंकि हर जगह पुलिस और प्रशासन मदद करने नहीं पहुंचेगा...उसका खुद का साहस और संबल ही ऐसी घटनाओं से बचा सकेगा।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तमाम कार्यक्रम करके ये मान लिया जाता है कि महिला उत्थान हो गया...पर क्या वास्तव में गंभीरता से किसी ने जानने की कोशिश की एक महिला क्या चाहती है ?..कैसा विकास चाहती है ? आज अक्सर एक आवाज़ सुनाई देती है कि महिलाएं आज़ादी का दुरुपयोग कर रही है..बताएं कि समाज ये क्यों उम्मीद करता है कि महिला हमेशा अच्छा ही करेगी..आखिर वो भी तो हैं हाड़-मांस की ही इंसान...कुछ अच्छा करेगी तो कुछ बुरा भी ..आखिर हमेशा उसे रस्सी की डोर पर चढ़ा,उसकी चाल पर निगाह क्यों रखी जाती है,भई चलेगी तो गिरेगी भी... सम्हलेगी भी..उसे जीने दो ।मशहूर मनोचकित्सक सिगमंड फ्रायड का एक बयान बहुत मशहूर है कि “मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इतने साल काम करने के बाद भी मै समझ नहीं पाया कि स्त्री आखिर चाहती क्या है?” फ्रायड अपने पेशे के दौरान सैकड़ों पुरुषों और स्त्रियों के संपर्क में आए।उन दिनों स्त्रियां ही मनोचिकित्सक के पास ज्यादा आती थी।अब सभ्यता का प्रसार कुछ इस तरह से हो रहा है कि मनोचिकित्सक के यहां महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज्यादा आने लगे हैं।फ्रायड के लिए स्त्री हमेशा से ही रहस्य बनी रही है।स्त्री वास्तव में क्या चाहती है,यह इसलिए स्पष्ट नहीं हो पाया है कि उसे अपनी मर्जी से चाहने की छूट उसे कभी नहीं मिली है..अब धीरे-धीरे परतें खुल रही है।उसे आज आज़ादी मिली है,सोचने-समझने विचरने के लिए खुला आसमान मिल रहा है..हां ये ज़रूर है कि इस राह पर कभी चलते हुए कांटे मिलते हैं तो कभी फूलों की सेज़..कभी सफलता..तो कभी असफलता..कहीं भटकाव भी हैं सदियों से पराधीन रही नारी को उड़ान भरते देखना किसी को अच्छा भी लग सकता है..किसी को बुरा भी....
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर कुछ करना ही चाहते हैं तो उसके आसमान को साफ करें और उड़ान भरने में मदद करते हुए सामर्थ्यवान बनाए...संबल बनाए....साहसी बनाए..ताकि आए दिन आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके,ताकि कोई उसे अबला समझ कर उसकी इज्जत ना लूट सके,ना ही आग के हवाले कर सके।