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सोमवार, 5 अप्रैल 2010

एक ही के साथ कैसे गुज़ार सकती हो?

जब मैने देश की राजधानी में पढ़ने के लिए एक संस्थान में दाखिला लिया,तो मुझ जैसी छोटे शहर की लड़की को तमाम तरह की सच्चाई से साबका पड़ा। कुछ तो वाकई फायदेमंद थी लेकिन कुछ के बारे में मै आज भी सोचती रहती हूं और जानने की कोशिश में जुटी रहती हूं कि क्या वाकई ये लड़कियां इतनी एडवांस थी..या फिर यूं ही बाते बनाने के लिए खुद को अपने कपड़ों की तरह ही बिंदास दिखाने के ऐसे स्टेटमेंट दे दिया करती थी। मै आज भी जानना चाहती हूं कि वो लड़किया कहां और कितनों के साथ, किस हाल में हैं? बात करीब दस साल पहले की है जब मेरे जीवन में दो घटनाएं किसी उल्कापात की तरह हुई। एक तरफ मेरी शादी हुई,दूसरी तरफ दिल्ली के एक संस्थान की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया..और मै इंटरव्यू देने के लिए दिल्ली आ गई। इंटरव्यू भी पास कर लिया और दाखिला ले लिया। मेरे लिए दोनों तरफ नया था...एक तरफ पारिवारिक तौर पर मै नई ज़िदगी में कदम रख रही थी..नए संबधों को जानने समझने की कोशिश में उलझी-सुलझी रहती थी(क्योंकि एक लड़की के लिए मायके से विदा होकर ससुराल की ड्योढ़ी पर कदम रखते ही उसकी दुनियां ही बदल जाती हैं...बोलने,समझने,समझाने का मिजाज बदल जाता हैं)
वहीं दूसरी तरफ देश की राजधानी के एक उच्च संस्थान में देश भर से आए छात्र-छात्राओं का साथ। छात्र-छात्राओं का उन्मुक्त व्यवहार..वैसै ही कपड़े...वैसे ही फैशन…पढ़ने की नई विधा...समझने की नई विधा..नए-नए तरह के प्रोफेसर,क्योकि हमारे शहर में साउथ इंडियन प्रोफेसर नहीं हुआ करते हैं। इनका अंदाज..खैर छोड़िए वो सब कभी और बताउंगी.. ।
मै एक तरफ अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी से सामंजस्य बिठा रही थी तो दूसरी तरफ इन सब चीज़ों के साथ ।
मुझे यहां के अधिकतर छात्र-छात्राएं बहुत ध्यान से देखते थे।इसकी वजह आप बिल्कुल ये ना समझें कि मै अपूर्व सुंदरी थी। जो चीज़े मुझे इन छात्र-छात्राओं से अलग करती थी...वो थी मेरी सिंदूर भरी मांग,कलाई में चूड़ियां..क्योंकि हमारे यहां रिवाज़ है कि कम से कम सवा महीने मांग और कलाई भरी होनी चाहिए।
कभी संस्थान के लॉन..तो कभी क्लास..कभी कैंटीन में आते-जाते कईयों से बातचीत होने लगी..नहीं तो स्माइल का ही आदान-प्रदान होने लगा। यहीं मैने सीखा कि टॉयलेट को “लू” कहते हैं...क्योंकि हम तो बॉथरुम और टॉयलेट ही कहते थें...जिस दिन “लू” शब्द का धमाका मेरे सामने हुआ..मै थोड़ी हकबकाई सी रह गई थी लेकिन अपने आपको स्मार्ट दिखाने और सब समझ रहीं हूं दिखाने की कोशिश में मैने.. या ,श्योर जैसे अंग्रेज़ीदा शब्दों से काम चला लिया। लेकिन हॉस्टल के अपने रुम में आते ही भार्गव की मोटी डिक्शनरी में शाब्दिक अर्थ ढ़ूढ़ने लगी..लेकिन वहां भी नहीं मिला...
खैर थोड़े दिनों बाद मै भी “लू” ही जाने लगी। ऐसी तो ना जाने कितनी ही यादें हैं। लेकिन जो बात अभी बतानी है वो है कि करीब बीस दिनों के बाद ही एक विस्फोट हुआ शब्दों का...एक अंग्रेजीदां,फैशनपरस्त,आधुनिक लड़कियों का ग्रुप जिनसे केवल स्माइल एक्सचेंज़ होती थी..उसमें से एक ने कहा हाय,हाउ आर यू? मैने कहा, फाइन...थोड़ी बहुत हॉस्टल और क्लास की बातों के बाद एक ने कहा, यू आर मैरिड...मैने पूछा इसलिए नहीं लिखा कि उसने कहा ही था...पूछा नहीं था..मै भी शादीशुदा होने की पूरे साजो-सामान से सुसज्जित थी..फिर क्यों ऐसा कह रही है..मेरे चेहरे पर थोड़ी झिझक, थोड़ी शर्म..का मिलाजुला पुट आया...इसके बाद तो उसने जो कहा वो मेरे जैसे मध्यमवर्गीय लड़की के लिए किसी विस्फोट जैसा ही था..उसने कहा कैसे पॉसिबल है कि तुम एक ही इंसान के साथ अपनी पूरी ज़िंदगी बिता दोगी?
मुझे तो जवाब देते ही नहीं बना..मै बस मुस्कुराह चेहरे पर चिपकाए...वहां से चली गई। लेकिन मुझे लगा कि ये लड़कियां कैसी बाते करती हैं? क्या सोच है इनकी ? मैने रात को पीसीओ बूथ पर जाकर लाइन में लगकर अपनी मम्मी को फोन किया(क्योंकि तब मोबाइल क्रांति नहीं आई थी,आधे-आधे घंटे बूथ पर तपस्या करनी पड़ती थी)मम्मी को कई बातों के साथ ये बात भी बतायी। मेरी मां ने चेतावनी और घबराए भरे लहज़े में कहा कि “देखो ऐसी लड़कियों से दूर रहना,दोस्ती ना करना..आज दस साल बीत जाने के बाद सोचती हूं कि कहां हैं वो लड़कियां ?

9 टिप्‍पणियां:

  1. Aapne sachaie ko jis tarah se is blog main likha hai wah aapke antratma ki sachaie ko darsata hai.Sachaie aur imandari ka daman hamesha pakar kar chaliye jiwan sachche sukhon se bhar jaega.Aap logon ko bhi sachcha aur imandar banne ko prerit karen aur hamare andolan se jurkar desh aur samaj ko sahi disha dene ka pryash karen.Hamare andolan ke jankari ke liye login karen-http://www.hprdindia.org and http://www.lokrajandolan.org

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  2. निःसन्देह उनकी भी शादी हो गई होगी ...स्वछन्द जीवन हर किसी के बस का नहीं होता ....बढ़िया पोस्ट

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  3. आधुनिक नारी के पूरे स्वातंत्र्य की जोत जगा रही होंगी कहीं.

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  4. कोई नई बात नहीं लिखी है आपने । मैट्रो शहर में आकर कुछ इसी तरह के अनुभवों से हर कोई गुजरता है। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां पर सामाजिक सर्किल होते हैं।स्कूल कॉलेजों में जो खत्म हो जाते हैं क्योंकि यहां पर हर वर्ग का छात्र छात्रा पढ़ने आता है। ठीक है ।लेकिन सोसाइटी यहां की बटीं हुई है।आप अपने अनुरुप लोगों और सामाजिक वर्ग को तलाश सकते हैं।मैट्रो में हर किसी के लायक लोग है।

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  5. प्रतिभा जी, बहुत अच्छी पोस्ट लिखी आपने।
    बहुत बार हम आधुनिक दिखने के भ्रम में अटपटा व्यवहार करते हैं। आपने प्र्श्नकर्ता से उनका पारिवारिक परिचय नहीं पूछा? आधुनिक होने में या दिखने में शायद कोई बुराई नहीं, पर दूसरों को इंगित करके अपने आप को महत्वपूर्ण दिखाना ही शायद आजकल की भाषा में ’cool' होना है।
    आपको पढ़ना अच्छा लगा।

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  6. @ "ये ब्लॉग हौंसलों की उड़ान भरती महिलाओं के लिए.."
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    और हां, टिप्पणी तो गैर महिला ब्लागर भी कर सकते हैं न?
    हा हा हा

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  7. मो सम कौन? जी सबसे पहले आपको धन्यवाद कि आप हमारे ब्लॉग तक आए। जी हां ये ब्लॉग हौंसलों की उड़ान भरती महिलाओं के लिए ही है। लेकिन ऐसा नही है कि मेरा ब्लॉग कोई महिलावादी है(feminist)है ।अच्छाई के साथ साथ जहां बुराई है उसे भी हमें स्वीकार करना चाहिए। यहीं तो उड़ान भरती महिलाओं को हौंसला देगा। हमारे ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिए किसी का महिला या पुरुष होने से ज्यादा एक संवेदनशील और जिम्मेदार इंसान होना है।

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