बात पिछले साल की है....जहां एक तरफ
पूरे देश भर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर महिलाओं के सम्मान
और उत्थान के लिए तमाम कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे.. वहीं मध्यप्रदेश में छतरपुर
के हमां गांव में एक महिला को आग के हवाले कर दिया गया। संध्या नामक इस महिला की
ग़लती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपनी अस्मत बचाने के लिए घर में घुस आए चार बदमाशों
का मुकाबला किया..नाराज़ बदमाशों ने उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दिया,आखिरकार
ज़िंदगी-मौत के बीच जूझते हुए उसने दम तोड़ दिया। ऐसा नहीं है कि ये अकेली घटना
है....हर बरस तमाम ऐसी घटनाए होती रहती हैं.....और हम तमाम इस तरह की घटनाओं से हम अक्सर रुबरु होते
रहते हैं और प्रशासन को कोस कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं....इस पूरे
वाकये में सबसे बड़ी बात ये है कि गांव में ऐसी घटना होती है.. और उस महिला को
बचाने के लिए कोई आगे नहीं आता। शहर के बड़े पॉश कॉलोनियों में आस-पास के लोगों को
एक दूसरे की खबर नहीं होती ये तो समझ में आता है,क्योंकि विकास की सीढ़ी चढ़ते
तथाकथित संभ्रांत लोग मिलने-जुलने में विश्वास नहीं करते।लेकिन गांव..जहां चूल्हे
भी एक दूसरे की आग से जलती थी..वहां सरेआम ऐसी घटनाए हो जाती हैं और लोग मदद को
आगे नहीं आते।..ये घटना या यूं कहें कि ऐसी घटनाएं हमारे समाज के बदलते ढ़ांचे की
तरफ इशारा करते हैं...ऐसे हालात में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ये विचार करने
की ज़रुरत है कि आज के बदलते परिपेक्ष्य महिलाओं को किस चीज की ज़रुरत है....मेरे
हिसाब से आज महिलाओं को ज़रुरत है सामर्थ्यवान बने ...साहसी बने... क्योंकि हर जगह पुलिस और प्रशासन मदद करने नहीं
पहुंचेगा...उसका खुद का साहस और संबल ही ऐसी घटनाओं से बचा सकेगा।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तमाम
कार्यक्रम करके ये मान लिया जाता है कि महिला उत्थान हो गया...पर क्या वास्तव में गंभीरता
से किसी ने जानने की कोशिश की एक महिला क्या चाहती है ?..कैसा विकास चाहती है ? आज अक्सर एक
आवाज़ सुनाई देती है कि महिलाएं आज़ादी का दुरुपयोग कर रही है..बताएं कि समाज ये
क्यों उम्मीद करता है कि महिला हमेशा अच्छा ही करेगी..आखिर वो भी तो हैं हाड़-मांस
की ही इंसान...कुछ अच्छा करेगी तो कुछ बुरा भी ..आखिर हमेशा उसे रस्सी की डोर पर
चढ़ा,उसकी चाल पर निगाह क्यों रखी जाती है,भई चलेगी तो गिरेगी भी... सम्हलेगी
भी..उसे जीने दो ।मशहूर मनोचकित्सक सिगमंड फ्रायड का एक बयान बहुत मशहूर है कि “मनोविश्लेषण के
क्षेत्र में इतने साल काम करने के बाद भी मै समझ नहीं पाया कि स्त्री आखिर चाहती
क्या है?” फ्रायड अपने पेशे के दौरान सैकड़ों पुरुषों और स्त्रियों के
संपर्क में आए।उन दिनों स्त्रियां ही मनोचिकित्सक के पास ज्यादा आती थी।अब सभ्यता
का प्रसार कुछ इस तरह से हो रहा है कि मनोचिकित्सक के यहां महिलाओं की अपेक्षा
पुरुष ज्यादा आने लगे हैं।फ्रायड के लिए स्त्री हमेशा से ही रहस्य बनी रही
है।स्त्री वास्तव में क्या चाहती है,यह इसलिए स्पष्ट नहीं हो पाया है कि उसे अपनी
मर्जी से चाहने की छूट उसे कभी नहीं मिली है..अब धीरे-धीरे परतें खुल रही है।उसे
आज आज़ादी मिली है,सोचने-समझने विचरने के लिए खुला आसमान मिल रहा है..हां ये ज़रूर
है कि इस राह पर कभी चलते हुए कांटे मिलते हैं तो कभी फूलों की सेज़..कभी
सफलता..तो कभी असफलता..कहीं भटकाव भी हैं सदियों से पराधीन रही नारी को उड़ान भरते
देखना किसी को अच्छा भी लग सकता है..किसी को बुरा भी....
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर कुछ करना ही चाहते हैं तो उसके आसमान को साफ
करें और उड़ान भरने में मदद करते हुए सामर्थ्यवान बनाए...संबल बनाए....साहसी
बनाए..ताकि आए दिन आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके,ताकि कोई उसे अबला समझ कर
उसकी इज्जत ना लूट सके,ना ही आग के हवाले कर सके।
वाह प्रतिभा जी आपने एक ऐसा विचार पिरोया है. जो बेहद चित्रात्मक है. कहानी पढ़ते जाइए और साथ में उसका चित्रण देखते जाइए. अच्छा लेख है. अच्छे विचार हैं.
जवाब देंहटाएंपर अगर वह पढ़ा नहीं जाता है तो सब खत्म हो जाता है. आप उन तमाम लोगों को इस बारे में बताएं जिनकी रूचि हो और उन तमाम लोगों को भी प्रेरित करें जिनकी अरूचि है.
किसी भी आंदोलन को आगे बढ़ाने में और उसमें अपनी सहभागिता रखने का एक तरीका लेखन भी है.
जो आप बखूबी से कर सकतीं हैं. ऐसा मैं इसलिए कहा रहा हूं कि आप अच्छा लिखती हैं.
धन्यवाद
आपका साथी
संजय कुमार श्रीवास्तव
हौंसला आफजाई के लिए शुक्रिया संजय जी.....
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