तमाम नियम कानूनों के बावज़ूद बेटी को कोख में ही कत्ल करने के मामले बढ़ते जा रहे हैं।ऐसे में अब एक पहल मस्जिदों से शुरु हो रही है।देशभर के इमाम अपनी तकरीरों में इस गुनाह का इस्लामी नज़रिया रखेंगे।हाल ही में लखनऊ में संपन्न हुई ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के राष्ट्रीय अधिवेशन में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने का फैसला हुआ है।कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ यह पहल इसी फैसले की एक अहम कड़ी है।मुस्लिम बुद्धजीवी वर्ग मानता है कि इस पहल का दूरगामी और सकारात्मक असर पड़ेगा।मुस्लिम समुदाय को कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता पैदा करने और इसे खत्म करने का यह तरीका सबसे आसान और प्रभावी दिखता है।क्योंकि जो बात मस्जिद से कही जाएगी उसे हर तबके के लोग मानेंगे। कहते हैं कि कभी कभी तकनीकी भी जानलेवा साबित होती है,कुछ ऐसा ही इस मामले में भी हुआ है।जानकारी के मुताबिक भारत वर्ष में लगभग दो दशक पूर्व भ्रूण-परीक्षण पद्धति की शुरुआत हुई, जिसका नाम है-एमिनो सिंथेसिस। इसका उद्देश्य है गर्भस्थ शिशु के क्रोमोसोमों के संबंध में जानकारी हासिल करना। यदि भ्रूण में किसी भी तरह की विकृति हो, जिससे शिशु की मानसिक और शारीरिक स्थिति बिगड़ सकती हो, तो उसका उपचार करना। किन्तु पिछले दस वर्षों से यह उद्देश्य बिल्कुल बदल गया है। आज अधिकांश माता-पिता गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की चिंता छोड़कर भ्रूण-परीक्षण केन्द्रों में यह पता लगाने जाते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है अथवा लड़की। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती है, किन्तु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनायी जाती है।
नारी को पूजने की बात करने वाले हमारे देश में लड़कियों को हेय की दृष्टि से देखा जाता है। आज पढ़े-लिखे ,जागरुक समाज में हालत ये है कि
पहली संतान बेटी हो गई तो दुबारा गर्भ धारण करने पर उसे अल्ट्रासाउंड करवाने की सलाह दी जाती है और कई माता-पिता खुद ही परीक्षण करवाने जाते हैं और एक नन्ही जान को दुनियां में आने से रोक देते हैं।इसके लिए तमाम तरह की दलीले भी दी जाती हैं।
अमेरिका में सन् 1994 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12 सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
क्या इस सत्य को जानने समझने और देखने के बाद भी किसी मां का दिल भ्रूण हत्या के लिए तैयार होगा।कई बार तो मां के ना चाहने के बावजूद भी घरों के बड़ों और पति के दबाव में भ्रूण हत्या करवाने को विवश होती है। दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे सोनोग्राफी सेंटर से कन्या भ्रूण-हत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रूण-हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जन-गणना में कन्याओं की घटती हुई संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इस बात से देश के प्रबुद्ध समाज शास्त्री चिंतित हैं। उनका मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जायेगी, जिससे विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियाँ नहीं रहेंगी। अपेक्षा है कि सामाजिक सोच बदली जाए, मानदंड बदले जाए। लड़के और लड़कियों के बीच भेद-रेखा को समाप्त किया जाये। एक कहावत है- लड़का करेगा कुल को रौशन, लड़की है पराया धन। इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं के विकसित होने के परिणाम स्वरूप ही कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी हैं। आज की परिस्थिति में लड़का हो या लड़की, इस बात का महत्व नहीं रहा है। बच्चा चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे शिक्षा व संस्कारों से संस्कारित किया जाना चाहिए। लड़कियों के जन्म से घबराने की अपेक्षा उनके जीवन के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, यह समाज के लिए अधिक श्रेयस्कर है।
कौम कोई भी हो हिंदू या मुस्लिम,सामाजिक बुराईयों से निजात दिलाने में धार्मिक नजरिया रामबाण होते हैं। ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के राष्ट्रीय अधिवेशन में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के फैसले का तहे दिल से स्वागत और इस दिशा में सोचने का शुक्रिया ना जाने कितनी अजन्मी नन्ही जानें कर रही है।